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Showing posts from January, 2019

मुझको मैं प्राप्त हुआ

कुछ खुले-बन्द दरवाज़े हैं, जो अनसुलझे रिश्तों से हैं, जब खुले रहे तब जगा वहम, जब बन्द हुए तब जगा अहम्, तब अनायास ही ज्ञात हुआ, अब मुझको ‘मैं’ प्राप्त हुआ। यूँ नया मेरा अस्तित्व हुआ, खिड़की से मैं था देख रहा, रंगीं शामों की स्याह रात, कभी दूर हुआ कभी पास हुआ, तब जा कर ये एहसास हुआ, अब मुझको ‘मैं’ प्राप्त हुआ।

निखर जाने दो

छलकता है गर अल्फ़ाज़ आँखों से, क़ीमती है, लेकिन छलक जाने दो, मोतियों की माला को टूट कर, इस फ़र्श पर बिखर जाने दो, रु ब रु ख़ुद से हो कर, ख़ुद को भी थोड़ा बिखर जाने दो, जाने भी दो, और जीना सीखो ख़ुद को थोड़ा और निखर जाने दो।

तन मन

चल आपस में बदल लेते हैं, अपने फ़ासलों को भी, तेरे मन और मेरे तन से भी, कम से कम पता ही चल जाए, कि ज़्यादा शातिर कौन है, तन या मन, फिर चाहे वो तेरा हो या मेरा।

काला

सच कहूँ, या फिर कुछ झूठ कहूँ, ख़िदमत में तेरे कुछ ऐसा कहूँ, सोने को मैं पीतल कह दूँ, तन मन को मैं क्यूँ ना दर्पण कह दूँ, तुझसे ना कहूँ अब ज़्यादा सच, लेकिन मैं कहूँगा कान्हा से, तू काला तन से है कान्हा, तेरा मानव, मन से क्यूँ काला रे।

प्रेम की पराकाष्ठा~ पिता

ट्रेन की इस जनरल बोगी में मेरे सामने की सीट पर बैठे बच्चे ने आते ही अपने पिता से मोबाइल ले कर, लूडो खेलना शुरू किया और पिता ने सामान रख कर , उसके और अपने माथे का पसीना पोछा। चंद लम्हों में उसने अपने बच्चे के आँखोंका चश्मा निकाल कर , ट्रेन की मद्धिम रोशनी में देख कर बेहद क़रीने से साफ़ कर के फिर से बच्चे के आँखों पर लगा दिया।बच्चा गेम खेलने में व्यस्त है और उसके पिता मेरे और अपने लिए प्लेटफ़ार्म पर चाय लेने चले गए हैं। ये बिना कुछ माँगे ही दे देना भी और अपना बना लेना भी शायद प्रेम की पराकाष्ठा ही है। अब क़िस्से और कहानियाँ ये एयरकंडिशंड दड़बों में कहाँ मिलते हैं और लग रहा है कि ये तो बस सफ़र का आग़ाज़ है.....

प्रारब्ध

हृदय के भाव का ‘प्रारब्ध’ है, मेरे प्रेम की पराकाष्ठा, ‘अस्तित्व’ होता ही नहीं, है प्रेम जब भी जागता। ये प्रेम बस है जानता, कि वो बस प्रेम ही है माँगता, है वो अनवरत, है अमिट, बन्धन रहित, अहं रहित ये हृदय मेरा जानता, प्रेम में हूँ मैं, ये मानता ।

सफ़र

सफ़र चाहत जो है मेरी, मोहब्बत है, मुक़द्दर है, न रुक पाया, ना रुक सकता, बिछड़ कर कारवाँ से भी, नहीं मायूस हो पाया, ख़ुद से क़ायदे से भी मैं, अलविदा कह नहीं पाया, सफ़र पूरा ना हो पाया।

मैं वापस आ गया हूँ

मृत्यु के परिणाम को, मैं मौन कर के आ गया हूँ, इस जगत के प्रेम का, मैं दाह कर के आ गया हूँ, मन के सारे भ्रमों को, मैं भस्म कर के आ गया हूँ, अब मैं वापस आ गया हूँ, अब मैं वापस आ गया हूँ।