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Showing posts from July, 2018

वजह कुछ और ...

वजह कुछ और है, लिखने बैठा जो ख़त तुझे आज, काँप उठी कलम, स्याह हो गयी आँखें, गीले पन्नों सा पसीज गया दिल, लेकिन, इस बार,  वजह कुछ और है। सर्द हवाओं में, तुझे ढूँढता हूँ, तो पाता हूँ, कशिश धुएँ के कश में क़ैद है, गर्माहट बिखर सी गयी है, इन टूटे हुए चाय के कुल्हड़ों में, लेकिन, इस बार, वजह कुछ और है। वो दौर अलग था, ये दौर अलग है, आज भी वही ट्रेन पकड़ता हूँ, दौड़कर, बस वो दौड़ अलग थी, अब दौड़ ये अलग है, हाँफ जाता हूँ अब भी दौड़ कर, लेकिन, इस बार, वजह कुछ और है।

शरद चन्द्र

हूँ सुना राग मल्हार तो मैं, फागुन में चैता सुनता हूँ, मैं राग प्रेम हूँ यौवन का, तो सखा भी हूँ मैं बचपन का, मैं शीतल निर्मल युग-युग से, मुझ पर न किसी का रंग चढ़ा, ना अहंकार का भंग चढ़ा, मैं निर्मोही के सिर पर हूँ, हूँ आदि योगी के केशों में, पर मुकुट बना मैं जन मन का, मैं निशा काल का सूरज हूँ, मैं बढ़ता फिर घटता और होता लोप, हूँ मानव जीवन का असल सोच, धरती से दूर मैं सत्य खड़ा, मैं अटल सत्य चुपचाप खड़ा।

एहसास

मन का मिलना ना मिलना, तेरा मेरा, एक और बात है, तेरा यूँ ही कभी मुस्कुराना, कोई और बात है, और दिलों का यूँ मिलना, कुछ ख़ास बात है, ये कुछ अलग ही एहसास है।

फिर देखिये

अनसुलझे सवालों को सुलझा लीजिए गंगा किनारे कभी सुबह तो शाम कभी अवध में गुज़ार लीजिए दिल में दबी उस बात को निकाल दीजिए इजहार-ऐ-मोहब्बत ना सही, मन की उस माया को ही निकाल दीजिए कभी मुस्कराइए तो कभी कभार आँसू ही निकाल दीजिए, कभी अपने ‘अस्तित्व’ को नकार दीजिए, फिर देखिये...........

मैं

अघोर के कपाल की कल्पना हूँ, क्रोध की काली रात हूँ, दहकती हुई आग हूँ, कपालिक का त्रिशूल हूँ, ताण्डव का अस्तित्व हूँ, बाहर से ही शांत हूँ मैं, अरे! मसान की राख हूँ मैं।

प्रेम का भाव

अहं का अस्तित्वहीन होना, धैर्य की समीक्षा करना, प्रलापों का मौन होना, सत्य को स्वीकारना, और प्रेम का होना, बिलकुल वैसे ही जैसे, दाह में सिर्फ़ शरीर का जलना, मन के दावानल का शान्त होना, और प्रेम की, भीष्म सी प्रतिज्ञा लेना, या फिर दधीच सा त्याग, अन्यथा अभिमन्यु सा बलिदान, ये प्रेम का भाव है, ये यही माँगता है, यही चाहता है।

अलख

यूँ मौन लिए क्यों रहता है, बेचैन है फिर क्यों थमता है, क्यों स्याह हुयी आँखों से, तू बस क्षितिज को देखा करता है, ये जीना भी क्या जीना है, अफ़सोस में रोता रहता है, रे जाग अभी, तो ज्ञान मिले, जब ज्ञान मिले तो प्राण मिले, जो प्राण मिले तो मोक्ष मिले, चल उठ, अब तुझको, मुर्दों की बस्ती में अलख जगाना है, सब ज्ञान बाँट दे उनमें भी, दे प्राण झोंक, अब उनमें भी, अब जा तू जल्दी, देर ना कर, जा अलख जगा, इन मुर्दों में।