हूँ सुना राग मल्हार तो मैं,
फागुन में चैता सुनता हूँ,
मैं राग प्रेम हूँ यौवन का,
तो सखा भी हूँ मैं बचपन का,
मैं शीतल निर्मल युग-युग से,
मुझ पर न किसी का रंग चढ़ा,
ना अहंकार का भंग चढ़ा,
मैं निर्मोही के सिर पर हूँ,
हूँ आदि योगी के केशों में,
पर मुकुट बना मैं जन मन का,
मैं निशा काल का सूरज हूँ,
मैं बढ़ता फिर घटता और होता लोप,
हूँ मानव जीवन का असल सोच,
धरती से दूर मैं सत्य खड़ा,
मैं अटल सत्य चुपचाप खड़ा।
फागुन में चैता सुनता हूँ,
मैं राग प्रेम हूँ यौवन का,
तो सखा भी हूँ मैं बचपन का,
मैं शीतल निर्मल युग-युग से,
मुझ पर न किसी का रंग चढ़ा,
ना अहंकार का भंग चढ़ा,
मैं निर्मोही के सिर पर हूँ,
हूँ आदि योगी के केशों में,
पर मुकुट बना मैं जन मन का,
मैं निशा काल का सूरज हूँ,
मैं बढ़ता फिर घटता और होता लोप,
हूँ मानव जीवन का असल सोच,
धरती से दूर मैं सत्य खड़ा,
मैं अटल सत्य चुपचाप खड़ा।
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