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प्रेम की पराकाष्ठा ~ रिश्ता

आज कल आप किसी से ज्यादा दिन न मिले-जुले, न ही अक्सर बातें करें, कुल मिलाकर ये कहूँ कि आज के ज़माने में  "टच" में या फिर "कनेक्ट" न रहें तो आप बड़े व्यस्त, स्वार्थी, घमंडी और न जाने क्या-क्या बन जाते हैं, और अगर इनमे से कुछ नहीं बन पाए तो सामने वाला आपको "बड़ा आदमी" तो बना ही देता है,  फिर रिश्तों में वही नाराज़गी, रूठने-मनाने, खिदमत और जद्दोजहद का एक दौर शुरू हो जाता है |

रिश्तों का कोई सामाजिक स्तर पर नाम हो या न हो, लेकिन अनिकेत और रक्षंदा का रिश्ता इन सब ताने-बाने से अलग ही था, है और रहेगा | दोनों ही अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त हैं, बातें कभी-कभार हो जाती हैं, और मुलाकात हुए तो बरसों भी बीत जाते हैं, लेकिन कोई शिकवा या शिकायत नहीं होती है | अनिकेत का तो चलो मान भी लें कि उसे रक्षंदा से प्यार है , लेकिन रक्षंदा को तो नहीं है शायद , लेकिन इसके बावजूद भी, रक्षंदा ने कभी भी काफी अरसे पर होने वाली अनिकेत संग बात-चीत या मुलाकातों को लेकर कभी कोई जुमलेबाजी नहीं की |

अनिकेत को तो सभी जानते हैं लेकिन रक्षंदा के चरित्र की इस गहराई को तो कोई नहीं जानता, शायद प्रेम तो नहीं है, सिर्फ दोस्ती भी नहीं है, लेकिन जो भी है वो अनिकेत की समझ से परे है | आखिर वो कौन सी बात है कि रक्षंदा ने अनिकेत से कभी, किसी भी बात की शिकायत नहीं की, बात हुयी तो हमेशा यही लगा कि अभी कल ही तो बात हुयी हो, मुलाकात हुयी तो लगा जैसे अभी कल ही मिले हो, जैसे बात करने के लिए ज्यादा कुछ न हो |

आये दिन बनते- बिखरते रिश्तों और उनकी व्याख्या के बीच, अनिकेत और रक्षंदा का रिश्ता कोई अनोखा तो नहीं, लेकिन सच्चा जरूर है | इस संसार में प्रेम ही एकमात्र सत्य है, शाश्वत है, शिव है | हिंदी के सुविख्यात कवि माखनलाल चतुर्वेदी ने भी लिखा है :

है कौन सा वह तत्त्व जो सारे भुवन में व्याप्त है ?
ब्रह्माण्ड पूरा भी नहीं जिसके लिए पर्याप्त है,
है कौन सी वो शक्ति, क्यों जी कौन सा वह भेद है ?
बस ध्यान ही जिसका मिटाता आपका सब शोक है |
बिछड़े हुओं का ह्रदय कैसे एक रहता है अहो !
वे कौन से आधार के बल कष्ट सहते हैं कहो ?
क्या क्लेश ? कैसा दुःख ? सबको धर्य से वे सह रहे,
है डूबने का भय न कुछ आनंद में वे बह रहे |
वह प्रेम है , वह प्रेम है ,वह प्रेम है ,वह प्रेम है ,.....

ये कविता एक ऐसे प्रेम को दर्शाती है जो आज-कल के दौरमें  जैसे गायब ही हो गया हो या फिर  उसकी परिभाषा ही बदल दी गयी हो | यकीन कीजिये अनिकेत और रक्षंदा का प्रेम भी इस कविता के जैसा ही है , और ऐसा प्रेम ही शायद प्रेम की पराकाष्ठा होता है |









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