Skip to main content

प्रेम की पराकाष्ठा ~ अधूरी बातें (1)

अनिकेत कभी भी अपने दिल की बात रक्षंदा से नहीं कर सका , रक्षंदा  से अनिकेत का रिश्ता  वाकई में प्रेम से परे था , कम से कम आज कल के प्रेम से तो परे  है ही ।   अनिकेत को रक्षंदा से प्यार तो पहली नज़र में  ही हो गया था , पर इज़हार कभी ना हो सका , होता भी कैसे , जब अनिकेत ने पहली  बार हिम्मत जुटाई तो कंप्यूटर लैब में रक्षंदा अपनी मण्डली को अपने प्यार की एक शानदार तस्वीर से रूबरू  करवा रही थी , तस्वीर की वो लम्बी नीली कार में बैठे उस शख़्स ने , अनिकेत को लम्बी दूरी बनाने के लिए मजबूर दिया ।

हालाँकि कॉलेज के बाद भी मौके आए कि वो कुछ कहे , लेकिन कभी वक़्त गलत था, तो कभी हालात ।  उनकी शानदार दोस्ती की कहानियाँ बहुत हैं , अनिकेत चाहता तो बहुत कुछ कर सकता था अपने लिए , लेकिन उसने सिर्फ रक्षंदा की ख़ुशी के लिए ही सोचा और हमेशा उसकी नज़र में दोस्त बन कर रह गया ।

वो कॉलेज की मस्तियों , कॉफी के प्यालों और रक्षंदा की अनमोल दोस्ती में ही खुश रहने लगा ।  उसने कभी भी एहसास नहीं होने दिया कि उसे प्यार भी है ।  रक्षंदा की  खुशी ही उसके लिए सब कुछ थी , उसे परेशान देख और उसके रिश्तों के बदलते समीकरण से परेशान होता , लेकिन कभी कुछ भी जाहिर नहीं करता ।

बड़ा अजीब है ये प्यार भी , कोई प्यार पाने के लिए ढूँढता है , तो कोई पाने के बाद भी ढूँढता है , पर अनिकेत का प्यार इन सब  से अलग था।  कोई कैसे अपने एक तरफ़ा प्यार की, सिर्फ ख़ुशी के लिए, इतना कुछ कर सकता है , उसके प्यार में उसे कोई उम्मीद नहीं थी, कोई स्पर्धा  नहीं थी , कोई आँसू नहीं थे , सिर्फ और सिर्फ ख़ुशी थी अपने प्यार की ख़ुशी में । अनिकेत कभी कभी  अकेले कॉलेज चला जाता है, जहाँ उसकी सारी  यादें सिमटी हुई हैं , कैंटीन में चाय पीना , बैडमिंटन कोर्ट के पास बैठना और फिर विज़िटर रजिस्टर में सिग्नेचर  (हस्ताक्षर ) कर के चुप चाप लौट जाना और रक्षंदा की ख़ुशी में खुश रहना जैसे उसकी जिन्दगी का एक हिस्सा बन गए हों ।

अनिकेत का प्रेम वाकई में एक अलग स्तर पर है , शायद इसी तरह के प्रेम को मोक्ष से जोड़ा गया हो , लेकिन प्रेम की पराकाष्ठा तो ऐसी ही  होती है ।  और ये प्रेम की पराकाष्ठा है , ये ऐसी ही होती है ।

*********

* "प्रेम की पराकाष्ठा" शब्द, सागर अपराजित के ब्लॉग searchofhiddenhappiness.blogspot.com  से प्रेरित है ।
** ये लेख मेरी एक  नयी रचना "अधूरी बातें " का एक लघु अंश है ।


Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

प्रेम की पराकाष्ठा ~ अधूरी बातें (2)

कभी रात के अँधेरे में आप सड़क पर अकेले फूट-फूट कर रोये हैं, वो भी ज़माने बाद | आपको किसी की भी परवाह नहीं होगी उस सन्नाटे में, न कोई आँसू देख सकेगा और न ही सिसकियों की आवाज़ सुन रहा होगा | और कभी बेवजह रोये हैं क्या ? आपको पता ही नहीं चल रहा हो कि आप क्यों रो रहे हैं, समझ ही नहीं पाना कि ये आँसू ख़ुशी के हैं या ग़म के | आज कुछ ऐसा ही अनिकेत के साथ हो रहा था, रात के उस सन्नाटे में, रक्षंदा से मिलने के बाद वो इतनी तेजी से भागा जैसे काटो तो खून नहीं | सबसे ज्यादा कष्ट, सबसे ज्यादा वेदना तभी होती है जब कोई अपना छूटता है | अलविदा कहने के लिए भी आँखों को ही बोलना पड़ता है | और आँखों को क्यों न बोलना पड़े, इंसान के जज्बातों को पूरी सच्चाई से आँखें ही बयां कर सकती हैं | आज कुछ ऐसा ही मंजर था अनिकेत की आँखों में, दोनों, रक्षंदा और अनिकेत  ने बातें ज्यादा तो शिष्टाचार की ही करीं, लेकिन ज़ज्बात बयां करने के लिए तो अनिकेत की डबडबायी आँखें की काफी थी, वैसे रक्षंदा को आज फिर से कुछ भी पता नहीं चल पाया क्यूंकि अनिकेत का प्यार कोई आज कल का परवान चढ़ता प्यार नहीं है बल्कि उसका प्यार ही उसके प्रेम की पराक...

सफ़र

सफ़र चाहत जो है मेरी, मोहब्बत है, मुक़द्दर है, न रुक पाया, ना रुक सकता, बिछड़ कर कारवाँ से भी, नहीं मायूस हो पाया, ख़ुद से क़ायदे से भी मैं, अलविदा कह नहीं पाया, सफ़र पूरा ना हो पाया।

चाहता हूँ

ये उल्फत क्यों अभी तक है, मैं पा लूँ  या उसे खो दूँ , मैं डरता हूँ , जो खो दूँ मैं उसे , तो फ़िर ये  कोई  हार न हो, जो पा लूँ , मैं उसे तो फ़िर , वो उसकी हार ना हो , मैं उस को, इस कदर महसूस करना चाहता हूँ कि सब कुछ हार कर भी, मैं ये पाना चाहता हूँ कि  वो मेरी रहे मन से, करे फ़िर जो भी उस मन से मैं तेरे मन से ही, खुद को समझना चाहता हूँ जरा मैं जान भी तो लूँ, कि  पाना है या खोना है।